गुलज़ार में वो रुत भी कभी आ के रहेगी
जब कोई कली जौर ख़िज़ाँ के न सहेगी
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तवील रात भी आख़िर को ख़त्म होती है
अब किसी शाख़ पे हिलता नहीं पत्ता कोई
तू समझता है तो ख़ुद तेरी नज़र गहरी नहीं
ग़ुनूदा राहों को तक तक के सोगवार न हो
धड़कनें बंद-ए-तकल्लुफ़ से ज़रा आज़ाद कर
फ़ज़ा-ए-सेहन-ए-गुलिस्ताँ है सोगवार अभी
पस्पाई
तू जून की गर्मी से न घबरा कि जहाँ में
तलाश जिन की है वो दिन ज़रूर आएँगे
ख़ंदा-ए-मौज मिरी तिश्ना-लबी ने जाना