ग़ुनूदा राहों को तक तक के सोगवार न हो
तिरे क़दम ही मुसाफ़िर इन्हें जगाएँगे
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फ़ज़ा-ए-सेहन-ए-गुलिस्ताँ है सोगवार अभी
कितने नाज़ुक कितने ख़ुश-गुल फूलों से ख़ुश-रंग प्याले
धड़कनें बंद-ए-तकल्लुफ़ से ज़रा आज़ाद कर
गुलज़ार में वो रुत भी कभी आ के रहेगी
तू समझता है तो ख़ुद तेरी नज़र गहरी नहीं
ख़ंदा-ए-मौज मिरी तिश्ना-लबी ने जाना
तू जून की गर्मी से न घबरा कि जहाँ में
पस्पाई
बस्तियाँ तू ने ख़लाओं में बसाईं भी तो क्या
जो अपने सर पे सर-ए-शाख़-ए-आशियाँ गुज़री