बस्तियाँ तू ने ख़लाओं में बसाईं भी तो क्या
दिल के वीरानों को देख इन को भी कुछ आबाद कर
Wasi Shah
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Mir Taqi Mir
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Gulzar
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Habib Jalib
Javed Akhtar
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तू समझता है तो ख़ुद तेरी नज़र गहरी नहीं
जो अपने सर पे सर-ए-शाख़-ए-आशियाँ गुज़री
गुलज़ार में वो रुत भी कभी आ के रहेगी
तवील रात भी आख़िर को ख़त्म होती है
तलाश जिन की है वो दिन ज़रूर आएँगे
ख़ंदा-ए-मौज मिरी तिश्ना-लबी ने जाना
धड़कनें बंद-ए-तकल्लुफ़ से ज़रा आज़ाद कर
तू जून की गर्मी से न घबरा कि जहाँ में
अब किसी शाख़ पे हिलता नहीं पत्ता कोई
फ़ज़ा-ए-सेहन-ए-गुलिस्ताँ है सोगवार अभी