कोई तो आ के रुला दे कि हँस रहा हूँ मैं
बहुत दिनों से ख़ुशी को तरस रहा हूँ मैं
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ज़ंजीर की चीख़
जिन ज़ख़्मों पर था नाज़ हमें वो ज़ख़्म भी भरते जाते हैं
ख़्वार-ओ-रुसवा थे यहाँ अहल-ए-सुख़न पहले भी
न महफ़िल ऐसी होती है न ख़ल्वत ऐसी होती है
जिस तरफ़ जाऊँ उधर आलम-ए-तन्हाई है
आबला-पाई से वीराना महक जाता है
मैं तो चुप था मगर उस ने भी सुनाने न दिया
वो गदा-गरान-ए-जल्वा सर-ए-रहगुज़ार चुप थे
सुख़न राज़-ए-नशात-ओ-ग़म का पर्दा हो ही जाता है
ख़ुद अपना हाल दिल-ए-मुब्तला से कुछ न कहा
बना हुस्न-ए-तकल्लुम हुस्न-ए-ज़न आहिस्ता आहिस्ता
किस किस को अब रोना होगा जाने क्या क्या भूल गया