निगह-ए-लुत्फ़ में है उक़्दा-कुशाई मुज़्मर
काम बिगड़े हुए बंदों के सँवर जाते हैं
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चूम कर आया है ये दस्त-ए-हिनाई आप का
वो झंकार पैदा है तार-ए-नफ़स में
ज़ुल्फ़-ए-जानाँ पे तबीअत मिरी लहराई है
दिल दिया है हम ने भी वो माह-ए-कामिल देख कर
बातों में ढूँडते हैं वो पहलू मलाल का
क्या ख़बर थी कोई रुस्वा-ए-जहाँ हो जाएगा
वो जब तक अंजुमन में जल्वा फ़रमाने नहीं आते
वो हद से दूर होते जा रहे हैं
शब-ए-फ़िराक़ जो दिल में ख़याल-ए-यार रहा
ज़िंदगी नाम है जिस चीज़ का क्या होती है
कसरत-ए-वहदानियत में हुस्न की तनवीर देख
कुछ इशारे वो सर-ए-बज़्म जो कर जाते हैं