तुम्हारे ख़्वाब लौटाने पे शर्मिंदा तो हैं लेकिन
कहाँ तक इतने ख़्वाबों की निगहबानी करेंगे हम
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यहाँ रहने में दुश्वारी बहुत है
रात का तारीक-तर पत्थर जिगर पानी करें
इतना नूर कहाँ से लाऊँ तारीकी के इस जंगल में
ये धुँद ये ग़ुबार छटे तो पता चले
मियाँ बाज़ार को शर्मिंदा करना क्या ज़रूरी है
हैबत-ए-हुस्न से अल्फ़ाज़ की हैरानी तक
रफ़्तार-ए-तेज़-तर का भरम टूटने लगे
दरों को चुनता हूँ दीवार से निकलता हूँ
अब्र का टुकड़ा कोई बाला-ए-बाम आता हुआ
टूटे हुए ख़्वाबों के तलबगार भी आए
मिरी तलाश में उस पार लोग जाते हैं
चश्म-ए-गर्दूं फिर तमाज़त अपनी बरसाने लगी