मिरी तलाश में उस पार लोग जाते हैं
मगर मैं डूब के इस पार से निकलता हूँ
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हैबत-ए-हुस्न से अल्फ़ाज़ की हैरानी तक
नख़्ल-ए-दुआ कभी जब दिल की ज़मीं से निकले
अजब तिलिस्म है नैरंग-ए-जावेदानी का
मियाँ बाज़ार को शर्मिंदा करना क्या ज़रूरी है
सफ़र सराबों का बस आज कटने वाला है
किसी नादीदा शय की चाह में अक्सर बदलते हैं
क्या ख़त्म न होगी कभी सहरा की हुकूमत
मिल गया जब वो नगीं फिर ख़ूबी-ए-तक़दीर से
मेरे क़दमों पर निगूँ मेरा ही सर है भी तो क्या
अगर सुने तो किसी को यक़ीं नहीं आए
दुनिया से दुनिया में रह कर कैसे किनारा कर रक्खा है