हर सम्त फ़लक-बोस पहाड़ों की क़तारें
'ख़ुसरव' है न 'शीरीं' है न तेशा है न फ़रहाद
Faiz Ahmad Faiz
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बे-नश्शा बहक रहा हूँ कब से
रस्म-ए-गिर्या भी उठा दी हम ने
हर लम्हा था सौ साल का टलता भी तो कैसे
इन को देखा था कहीं याद नहीं
कुछ हश्र से कम गर्मी-ए-बाज़ार नहीं है
जब मंज़िलों वहम था न शब का
जाने किस किस की तवज्जोह का तमाशा देखा
आ दिल में तुझे कहीं छुपा लूँ
जाने क्या बात है मानूस बहुत लगता है
मैं ने ही न कुछ खोया जो पाया न किसी को
साँस की आस निगहबाँ है ख़बर-दार रहो
ये किस अज़ाब में छोड़ा है तू ने इस दिल को