हाँ ऐ ग़म-ए-इश्क़ मुझ को पहचान
दिल बन के धड़क रहा हूँ कब से
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पर्दे में ख़मोशी के बुर्के में उदासी के
दिल ने किस मंज़िल-ए-बे-नाम में छोड़ा था मुझे
अपनों से मुरव्वत का तक़ाज़ा नहीं करते
जाने किस किस की तवज्जोह का तमाशा देखा
हासिल-ए-इंतिज़ार कुछ भी नहीं
इक ज़माने से फ़लक ठहरा हुआ लगता है
हम पी गए सब हिले न लब तक
दिल तलबगार-ए-तमाशा क्यूँ था
हर लम्हा था सौ साल का टलता भी तो कैसे
मैं ने ही न कुछ खोया जो पाया न किसी को
हम शहर में इक शम्अ की ख़ातिर हुए बर्बाद