हम-सफ़र हो तो कोई अपना-सा
चाँद के साथ चलोगे कब तक
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वहम साबित हुए सब ख़्वाब सुहाने तेरे
कुछ हश्र से कम गर्मी-ए-बाज़ार नहीं है
दिल सख़्त निढाल हो गया है
आ दिल में तुझे कहीं छुपा लूँ
हासिल-ए-इंतिज़ार कुछ भी नहीं
हम शहर में इक शम्अ की ख़ातिर हुए बर्बाद
ये किस अज़ाब में छोड़ा है तू ने इस दिल को
इक उम्र फ़साने ग़म-ए-जानाँ के गढ़े हैं
इक ज़माने से फ़लक ठहरा हुआ लगता है
साँस की आस निगहबाँ है ख़बर-दार रहो
वो पास आए आस बने और पलट गए
अपनों से मुरव्वत का तक़ाज़ा नहीं करते