ख़्वाब और नींदों का ख़त्म हो गया रिश्ता
मुद्दतों से आँखों में रत-जगों का मौसम है
Anwar Masood
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दर्द सीने में कहीं चीख़ रहा हो जैसे
मेहर-ओ-वफ़ा ख़ुलूस-ए-तमन्ना मिलन की आस
वो जो मिलता था कभी मुझ से बहारों की तरह
काश ऐसी भी कोई साअ'त हो
खिड़कियाँ खोल लूँ हर शाम यूँही सोचों की
जिस्म ओ जाँ सुलगते हैं बारिशों का मौसम है
ख़ुद से लिपट के रो लें बहुत मुस्कुरा लिए
बहुत ग़ुरूर था बिफरे हुए समुंदर को
मुझ में आ कर ठहर गया कोई
कुछ ऐसा भी तो हो जाए कभी ऐसा करे कोई
मंज़िल मिले न कोई भी रस्ता दिखाई दे