खिड़कियाँ खोल लूँ हर शाम यूँही सोचों की
फिर उसी राह से यादों को गुज़रता देखूँ
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जिस्म ओ जाँ सुलगते हैं बारिशों का मौसम है
मेहर-ओ-वफ़ा ख़ुलूस-ए-तमन्ना मिलन की आस
मुझ में आ कर ठहर गया कोई
बहुत ग़ुरूर था बिफरे हुए समुंदर को
वो जो मिलता था कभी मुझ से बहारों की तरह
निगाह ओ दिल में वही कर्बला का मंज़र था
सुब्ह को शाम लिख दिया मैं ने
हर-सू ख़ुशबू को फ़ज़ाओं में बिखरता देखूँ
ये फ़ना मेरी बक़ा हो जैसे
हुस्न-ए-यूसुफ़ किसे कहते हैं ज़ुलेख़ा क्या है
ख़्वाब और नींदों का ख़त्म हो गया रिश्ता