क्या शय है खींच लेती है शब को सर-ए-फ़लक
फिर सुब्ह जोड़ती है दोबारा ज़मीन से
Wasi Shah
Ahmad Faraz
Rahat Indori
Anwar Masood
Faiz Ahmad Faiz
Mohsin Naqvi
Jaun Eliya
Habib Jalib
Parveen Shakir
Mir Taqi Mir
Gulzar
Javed Akhtar
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(578) Peoples Rate This
मेहवर पे भी गर्दिश मिरी मेहवर से अलग हो
वही बे-लिबास क्यारियाँ कहीं बेल बूटों के बल नहीं
पहाड़ों को बिछा देते कहीं खाई नहीं मिलती
सितम-ज़रीफ़ी की सूरत निकल ही आती है
लहरों में भँवर निकलेंगे मेहवर न मिलेगा
इक परेशानी अलग थी और पशेमानी अलग
अव्वल वही सैराब था सानी भी वही था
मिला किसी से न अच्छा लगा सुख़न इस बार
शहर को चोट पे रखती है गजर में कोई चीज़
तन्हा कर के मुझ को सलीब-ए-सवाल पे छोड़ दिया
ख़ामोश भी रह जाए और इज़हार भी कर दे