अपनी मस्ती में बहता दरिया हूँ
मैं किनारा भी हूँ भँवर भी हूँ
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मैं कि काग़ज़ की एक कश्ती हूँ
पराई आग पे रोटी नहीं बनाऊँगा
इक तिरा हिज्र दाइमी है मुझे
ये एक बात समझने में रात हो गई है
बता ऐ अब्र मुसावात क्यूँ नहीं करता
सहरा से हो के बाग़ में आया हूँ सैर को
दास्ताँ हूँ मैं इक तवील मगर
सहरा से आने वाली हवाओं में रेत है
इस एक डर से ख़्वाब देखता नहीं
जब उस की तस्वीर बनाया करता था
मैं जिस के साथ कई दिन गुज़ार आया हूँ
किसे ख़बर है कि उम्र बस उस पे ग़ौर करने में कट रही है