लम्हा-दर-लम्हा गुज़रता ही चला जाता है
वक़्त ख़ुशबू है बिखरता ही चला जाता है
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अभी तो आँखों में ना-दीदा ख़्वाब बाक़ी हैं
वही जो राह का पत्थर था बे-तराश भी था
कमंद-ए-हल्क़ा-ए-गुफ़तार तोड़ दी मैं ने
क्या ज़रूरी है कोई बे-सबब आज़ार भी हो
बज़्म-ए-जाँ फिर निगह-ए-तौबा-शिकन माँगे है
पलक झपकने में कुछ ख़्वाब टूट जाते हैं
तेरी यादों की कहानी तो नहीं है 'तनवीर'
मिरी ग़ज़ल जो नए साज़ से इबारत है
दिल के भूले हुए अफ़्साने बहुत याद आए
दिल है पलकों में सिमट आता है आँसू की तरह
रिवायतों को सलीबों से कर दिया आज़ाद