पलक झपकने में कुछ ख़्वाब टूट जाते हैं
जो बुत-शिकन है वही लम्हा बुत-तराश भी था
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ये बात दश्त-ए-वफ़ा की नहीं चमन की है
लम्हा-दर-लम्हा गुज़रता ही चला जाता है
फ़िशार-ए-हुस्न से आग़ोश-ए-तंग महके है
कमंद-ए-हल्क़ा-ए-गुफ़तार तोड़ दी मैं ने
दर्द की लय को बढ़ा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी
बज़्म-ए-जाँ फिर निगह-ए-तौबा-शिकन माँगे है
मिरी ग़ज़ल जो नए साज़ से इबारत है
दिल है पलकों में सिमट आता है आँसू की तरह
तेरी यादों की कहानी तो नहीं है 'तनवीर'
अभी तो आँखों में ना-दीदा ख़्वाब बाक़ी हैं