रिवायतों को सलीबों से कर दिया आज़ाद
यही रसन तो सर-ए-दार तोड़ दी मैं ने
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तेरी यादों की कहानी तो नहीं है 'तनवीर'
वो रक़्स कहाँ और वो तब-ओ-ताब कहाँ है
मिरी ग़ज़ल जो नए साज़ से इबारत है
कमंद-ए-हल्क़ा-ए-गुफ़तार तोड़ दी मैं ने
ये बात दश्त-ए-वफ़ा की नहीं चमन की है
लम्हा-दर-लम्हा गुज़रता ही चला जाता है
क्या ज़रूरी है कोई बे-सबब आज़ार भी हो
फ़िशार-ए-हुस्न से आग़ोश-ए-तंग महके है
मिल भी जाता जो आब आब-ए-बक़ा क्या करते
अजीब शख़्स है पत्थर से पर बनाता है