दिल Poetry (page 8)

सुकूत से भी सुख़न को निकाल लाता हुआ

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

दिल के ज़ख़्मों पे वो मरहम जो लगाना चाहे

ज़ियाउल हक़ क़ासमी

पास-ए-पिंदार-ए-तबीअत दिल अगर रख ले तो क्या

ज़ियाउद्दीन अहमद शकेब

पड़ती नहीं है दिल पे तिरे हुस्न की किरन

ज़ियाउद्दीन अहमद शकेब

गोश-ए-मुश्ताक़-ए-सदा-ए-नाला-ए-दिल अब कहाँ

ज़ियाउद्दीन अहमद शकेब

फ़िक्र-मंदी फ़ुज़ूल होती है

ज़ियाउद्दीन अहमद शकेब

रेज़ा रेज़ा तिरे चेहरे पे बिखरती हुई शाम

ज़िया ज़मीर

माना कि यहाँ अपनी शनासाई भी कम है

ज़िया ज़मीर

जो रिश्तों की अजब सी ज़िम्मेदारी सर पे रक्खी है

ज़िया ज़मीर

इक दर्द का सहरा है सिमटता ही नहीं है

ज़िया ज़मीर

अब तो आते हैं सभी दिल को दुखाने वाले

ज़िया ज़मीर

उन्हें अपने गुदाज़-ए-दिल से अंदाज़ा था औरों का

ज़िया जालंधरी

मुश्किलें दिल में नई शमएँ जला देती हैं

ज़िया जालंधरी

वक़्त कातिब है

ज़िया जालंधरी

तीरगी

ज़िया जालंधरी

तसलसुल

ज़िया जालंधरी

तन्हा

ज़िया जालंधरी

सुब्ह से शाम तक

ज़िया जालंधरी

राह-रौ

ज़िया जालंधरी

पैग़ाम

ज़िया जालंधरी

कसक

ज़िया जालंधरी

कही अन-कही

ज़िया जालंधरी

इम्कान

ज़िया जालंधरी

हम

ज़िया जालंधरी

हरजाई

ज़िया जालंधरी

चाक

ज़िया जालंधरी

बड़ा शहर

ज़िया जालंधरी

अबुल-हौल

ज़िया जालंधरी

तिरी निगह से इसे भी गुमाँ हुआ कि मैं हूँ

ज़िया जालंधरी

सोज़-ए-दिल भी नहीं सुकूँ भी है

ज़िया जालंधरी

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