सोज़-ए-दिल भी नहीं सुकूँ भी है
ज़िंदगानी वबाल यूँ भी है
तिरी ख़्वाहिश और इस क़दर ख़्वाहिश
वज्ह-ए-हासिल सही जुनूँ भी है
ख़ुश भी है इल्तिफ़ात-ए-दोस्त से दिल
ग़ैरत-ए-इश्क़ सर-निगूँ भी है
जल के बुझ भी गई 'ज़िया' अक्सर
आग सीने में जूँ की तूँ भी है
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अब इस का चारा ही क्या कि अपनी तलब ही ला-इंतिहा थी वर्ना
अधूरी
गुमाँ था या तिरी ख़ुश्बू यक़ीन अब भी नहीं
बड़ा शहर
रंग बातें करें और बातों से ख़ुश्बू आए
चाँद ही निकला न बादल ही छमा-छम बरसा
शजर जलते हैं शाख़ें जल रही हैं
अब जो रूठे तो जाँ पे बनती है
फ़ज़ाएँ इस क़दर बे-कल रही हैं
ख़ुद फ़रेब
अजब कशाकश-ए-बीम-ओ-रजा है तन्हाई
तीरगी