निशां Poetry (page 14)

कुछ भी नहीं है ख़ाक के आज़ार से परे

दिलावर अली आज़र

फिर वही शख़्स मिरे ख़्वाब में आया होगा

धीरेंद्र सिंह फ़य्याज़

उदासी के मंज़र मकानों में हैं

देवमणि पांडेय

आग के फूल पे शबनम के निशाँ ढूँडोगे

दीपक क़मर

एक रहज़न को अमीर-ए-कारवाँ समझा था मैं

द्वारका दास शोला

मज़दूर

दाऊद ग़ाज़ी

फ़िदा अल्लाह की ख़िल्क़त पे जिस का जिस्म ओ जाँ होगा

दत्तात्रिया कैफ़ी

दौलत मिली जहान की नाम-ओ-निशाँ मिले

दर्शन सिंह

न वो ताएरों का जमघट न वो शाख़-ए-आशियाना

दानिश फ़राही

कोई नाम-ओ-निशाँ पूछे तो ऐ क़ासिद बता देना

दाग़ देहलवी

बाक़ी जहाँ में क़ैस न फ़रहाद रह गया

दाग़ देहलवी

समंदर का सुकूत

चन्द्रभान ख़याल

ख़ाक-ए-हिंद

चकबस्त ब्रिज नारायण

मिरी बे-ख़ुदी है वो बे-ख़ुदी कहीं ख़ुदी का वहम-ओ-गुमाँ नहीं

चकबस्त ब्रिज नारायण

अपने सारे रास्ते अंदर की जानिब मोड़ कर

बुशरा एजाज़

मंज़रों के दरमियाँ मंज़र बनाना चाहिए

बुशरा एजाज़

ठोकर किसी पत्थर से अगर खाई है मैं ने

बिस्मिल सईदी

फ़र्श ता अर्श कोई नाम-ओ-निशाँ मिल न सका

बेकल उत्साही

यूँ तो कहने को तिरी राह का पत्थर निकला

बेकल उत्साही

कभी यहाँ लिए हुए कभी वहाँ लिए हुए

बेदम शाह वारसी

यार पहलू में निहाँ था मुझे मा'लूम न था

बयान मेरठी

बदलने रंग सिखलाए जहाँ को

बयान मेरठी

किसी के नक़्श-ए-क़दम का निशाँ नहीं मिलता

बासित भोपाली

दिल लगा लेते हैं अहल-ए-दिल वतन कोई भी हो

बासिर सुल्तान काज़मी

सर पे इक साएबाँ तो रहने दे

बशीर मुंज़िर

इक बे-सबात अक्स बना बे-निशाँ गया

बशीर अहमद बशीर

न रहे नामा ओ पैग़ाम के लाने वाले

मिर्ज़ा रज़ा बर्क़

ताबिश-ए-हुस्न हिजाब-ए-रुख़-ए-पुर-नूर नहीं

बर्क़ देहलवी

आस्तीं में साँप इक पलता रहा

बाक़ी सिद्दीक़ी

ये किस जगह पे क़दम रुक गए हैं क्या कहिए

बाक़र मेहदी

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