ठोकर किसी पत्थर से अगर खाई है मैं ने
मंज़िल का निशाँ भी उसी पत्थर से मिला है
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इश्क़ जो ना-गहाँ नहीं होता
बैठा नहीं हूँ साया-ए-दीवार देख कर
फ़राहम जिस क़दर इशरत के सामाँ होते जाते हैं
कौन समझे इश्क़ की दुश्वारियाँ
सर जिस पे न झुक जाए उसे दर नहीं कहते
मोहब्बत में ख़ुदा जाने हुईं रुस्वाइयाँ किस से
अब इश्क़ रहा न वो जुनूँ है
तुम जब आते हो तो जाने के लिए आते हो
किसी के सितम इस क़दर याद आए
किया तबाह तो दिल्ली ने भी बहुत 'बिस्मिल'