सुकूँ नसीब हुआ हो कभी जो तेरे बग़ैर
ख़ुदा करे कि मुझे तू कभी नसीब न हो
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सर जिस पे न झुक जाए उसे दर नहीं कहते
कौन समझे इश्क़ की दुश्वारियाँ
ठोकर किसी पत्थर से अगर खाई है मैं ने
ना-उमीदी है बुरी चीज़ मगर
मोहब्बत में ख़ुदा जाने हुईं रुस्वाइयाँ किस से
दोहराई जा सकेगी न अब दास्तान-ए-इश्क़
मेरे दिल को भी पड़ा रहने दो
ना-उम्मीदी है बुरी चीज़ मगर
काबे में मुसलमान को कह देते हैं काफ़िर
दो दिन में हो गया है ये आलम कि जिस तरह
इश्क़ भी है किस क़दर बर-ख़ुद-ग़लत