ना-उमीदी है बुरी चीज़ मगर
एक तस्कीन सी हो जाती है
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सर जिस पे न झुक जाए उसे दर नहीं कहते
इश्क़ जो ना-गहाँ नहीं होता
कब से उलझ रहे हैं दम-ए-वापसीं से हम
वही होती है रहबर जो तमन्ना दिल में होती है
दो दिन में हो गया है ये आलम कि जिस तरह
अब इश्क़ रहा न वो जुनूँ है
ज़माना-साज़ियों से मैं हमेशा दूर रहता हैं
मेरे दिल को भी पड़ा रहने दो
ना-उम्मीदी है बुरी चीज़ मगर
दोहराई जा सकेगी न अब दास्तान-ए-इश्क़
इश्क़ भी है किस क़दर बर-ख़ुद-ग़लत