इश्क़ भी है किस क़दर बर-ख़ुद-ग़लत
उन की बज़्म-ए-नाज़ और ख़ुद्दारियाँ
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तुम जब आते हो तो जाने के लिए आते हो
ठोकर किसी पत्थर से अगर खाई है मैं ने
मोहब्बत में ख़ुदा जाने हुईं रुस्वाइयाँ किस से
हुस्न भी कम्बख़्त कब ख़ाली है सोज़-ए-इश्क़ से
इश्क़ जो ना-गहाँ नहीं होता
मेरे दिल को भी पड़ा रहने दो
ख़ुश्बू को फैलने का बहुत शौक़ है मगर
ज़माना-साज़ियों से मैं हमेशा दूर रहता हैं
बैठा नहीं हूँ साया-ए-दीवार देख कर
दो दिन में हो गया है ये आलम कि जिस तरह
सर जिस पे न झुक जाए उसे दर नहीं कहते