ख़ुश्बू को फैलने का बहुत शौक़ है मगर
मुमकिन नहीं हवाओं से रिश्ता किए बग़ैर
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रो रहा हूँ आज मैं सारे जहाँ के सामने
सर जिस पे न झुक जाए उसे दर नहीं कहते
ज़माना-साज़ियों से मैं हमेशा दूर रहता हैं
बैठा नहीं हूँ साया-ए-दीवार देख कर
इश्क़ भी है किस क़दर बर-ख़ुद-ग़लत
सुकूँ नसीब हुआ हो कभी जो तेरे बग़ैर
काबे में मुसलमान को कह देते हैं काफ़िर
हुस्न भी कम्बख़्त कब ख़ाली है सोज़-ए-इश्क़ से
किसी के सितम इस क़दर याद आए
ना-उम्मीदी है बुरी चीज़ मगर
अब इश्क़ रहा न वो जुनूँ है