किसी के सितम इस क़दर याद आए
ज़बाँ थक गई मेहरबाँ कहते कहते
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सर जिस पे न झुक जाए उसे दर नहीं कहते
फ़राहम जिस क़दर इशरत के सामाँ होते जाते हैं
ना-उमीदी है बुरी चीज़ मगर
कौन समझे इश्क़ की दुश्वारियाँ
हुस्न भी कम्बख़्त कब ख़ाली है सोज़-ए-इश्क़ से
सुकूँ नसीब हुआ हो कभी जो तेरे बग़ैर
ख़ुश्बू को फैलने का बहुत शौक़ है मगर
ना-उम्मीदी है बुरी चीज़ मगर
रह-रव-ए-राह-ए-मोहब्बत कौन सी मंज़िल में है
इश्क़ भी है किस क़दर बर-ख़ुद-ग़लत
रो रहा हूँ आज मैं सारे जहाँ के सामने
ठोकर किसी पत्थर से अगर खाई है मैं ने