फ़र्श ता अर्श कोई नाम-ओ-निशाँ मिल न सका
मैं जिसे ढूँढ रहा था मिरे अंदर निकला
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ज़मीन प्यासी है बूढ़ा गगन भी भूका है
उस का जवाब एक ही लम्हे में ख़त्म था
न चिलमनों की हसीं सरसराहटें होंगी
मुझ को शिकस्तगी का क़लक़ देर तक रहा
ख़ुद अपने जुर्म का मुजरिम को ए'तिराफ़ न था
मैं जब भी कोई अछूता कलाम लिखता हूँ
हवा-ए-इश्क़ ने भी गुल खिलाए हैं क्या क्या
लोग तो जा के समुंदर को जला आए हैं
न जाने कौन सा नश्शा है उन पे छाया हुआ
बीच सड़क इक लाश पड़ी थी और ये लिक्खा था
जब कूचा-ए-क़ातिल में हम लाए गए होंगे
बदन की आँच से सँवला गए हैं पैराहन