हर एक लहज़ा मिरी धड़कनों में चुभती थी
अजीब चीज़ मिरे दिल के आस-पास रही
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वो थे जवाब के साहिल पे मुंतज़िर लेकिन
तंज़ की तेग़ मुझी पर सभी खींचे होंगे
यूँ तो कई किताबें पढ़ीं ज़ेहन में मगर
हम भटकते रहे अंधेरे में
फ़रिश्ते देख रहे हैं ज़मीन ओ चर्ख़ का रब्त
न चिलमनों की हसीं सरसराहटें होंगी
ख़ुदा करे मिरा मुंसिफ़ सज़ा सुनाने पर
तो पहले मेरा ही हाल-ए-तबाह लिख लीजे
यूँ तो कहने को तिरी राह का पत्थर निकला
रहीन-ए-आस रही है न महव-ए-यास रही
बदन की आँच से सँवला गए हैं पैराहन