फ़रिश्ते देख रहे हैं ज़मीन ओ चर्ख़ का रब्त
ये फ़ासला भी तो इंसाँ की एक जस्त लगे
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दौर-ए-हाज़िर की बज़्म में 'बेकल'
उस का जवाब एक ही लम्हे में ख़त्म था
फ़र्श ता अर्श कोई नाम-ओ-निशाँ मिल न सका
यूँ तो कई किताबें पढ़ीं ज़ेहन में मगर
मुझ को शिकस्तगी का क़लक़ देर तक रहा
दिमाग़ अर्श पे है ख़ुद ज़मीं पे चलते हैं
बीच सड़क इक लाश पड़ी थी और ये लिक्खा था
लोग तो जा के समुंदर को जला आए हैं
जब कूचा-ए-क़ातिल में हम लाए गए होंगे
ख़ुद अपने जुर्म का मुजरिम को ए'तिराफ़ न था
उधर वो हाथों के पत्थर बदलते रहते हैं