बीच सड़क इक लाश पड़ी थी और ये लिक्खा था
भूक में ज़हरीली रोटी भी मीठी लगती है
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हम भटकते रहे अंधेरे में
ख़ुदा करे मिरा मुंसिफ़ सज़ा सुनाने पर
नज़र की फ़त्ह कभी क़ल्ब की शिकस्त लगे
उदास काग़ज़ी मौसम में रंग ओ बू रख दे
दिमाग़ अर्श पे है ख़ुद ज़मीं पे चलते हैं
उधर वो हाथों के पत्थर बदलते रहते हैं
बदन की आँच से सँवला गए हैं पैराहन
हम चटानों की तरह साहिल पे ढाले जाएँगे
जब कूचा-ए-क़ातिल में हम लाए गए होंगे
तमन्ना बन गई है माया-ए-इल्ज़ाम क्या होगा
मुझ को शिकस्तगी का क़लक़ देर तक रहा