हम भटकते रहे अंधेरे में
रौशनी कब हुई नहीं मालूम
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इश्क़-विश्क़ ये चाहत-वाहत मन का भुलावा फिर मन भी अपना क्या
जब कूचा-ए-क़ातिल में हम लाए गए होंगे
उलझ रहे हैं बहुत लोग मेरी शोहरत से
न जाने कौन सा नश्शा है उन पे छाया हुआ
दौर-ए-हाज़िर की बज़्म में 'बेकल'
भीतर बसने वाला ख़ुद बाहर की सैर करे मौला ख़ैर करे
उधर वो हाथों के पत्थर बदलते रहते हैं
हम चटानों की तरह साहिल पे ढाले जाएँगे
यूँ तो कई किताबें पढ़ीं ज़ेहन में मगर
उस का जवाब एक ही लम्हे में ख़त्म था
तो पहले मेरा ही हाल-ए-तबाह लिख लीजे