न जाने कौन सा नश्शा है उन पे छाया हुआ
क़दम कहीं पे हैं पड़ते कहीं पे चलते हैं
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दिमाग़ अर्श पे है ख़ुद ज़मीं पे चलते हैं
तंज़ की तेग़ मुझी पर सभी खींचे होंगे
उधर वो हाथों के पत्थर बदलते रहते हैं
किवाड़ बंद करो तीरा-बख़्तो सो जाओ
मैं जब भी कोई अछूता कलाम लिखता हूँ
ख़ुदा करे मिरा मुंसिफ़ सज़ा सुनाने पर
हर एक लहज़ा मिरी धड़कनों में चुभती थी
उस का जवाब एक ही लम्हे में ख़त्म था
फ़र्श ता अर्श कोई नाम-ओ-निशाँ मिल न सका
मुझ को शिकस्तगी का क़लक़ देर तक रहा
यूँ तो कहने को तिरी राह का पत्थर निकला