लोग तो जा के समुंदर को जला आए हैं
मैं जिसे फूँक कर आया वो मिरा घर निकला
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ज़मीन प्यासी है बूढ़ा गगन भी भूका है
रहीन-ए-आस रही है न महव-ए-यास रही
जब कूचा-ए-क़ातिल में हम लाए गए होंगे
वो मेरे क़त्ल का मुल्ज़िम है लोग कहते हैं
उदास काग़ज़ी मौसम में रंग ओ बू रख दे
दौर-ए-हाज़िर की बज़्म में 'बेकल'
हर एक लहज़ा मिरी धड़कनों में चुभती थी
तमन्ना बन गई है माया-ए-इल्ज़ाम क्या होगा
नज़र की फ़त्ह कभी क़ल्ब की शिकस्त लगे
बीच सड़क इक लाश पड़ी थी और ये लिक्खा था
वो थे जवाब के साहिल पे मुंतज़िर लेकिन
फ़रिश्ते देख रहे हैं ज़मीन ओ चर्ख़ का रब्त