किवाड़ बंद करो तीरा-बख़्तो सो जाओ
गली में यूँ ही उजालों की आहटें होंगी
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ख़ुदा करे मिरा मुंसिफ़ सज़ा सुनाने पर
दिमाग़ अर्श पे है ख़ुद ज़मीं पे चलते हैं
बदन की आँच से सँवला गए हैं पैराहन
तो पहले मेरा ही हाल-ए-तबाह लिख लीजे
लोग तो जा के समुंदर को जला आए हैं
दौर-ए-हाज़िर की बज़्म में 'बेकल'
हम भटकते रहे अंधेरे में
इश्क़-विश्क़ ये चाहत-वाहत मन का भुलावा फिर मन भी अपना क्या
न चिलमनों की हसीं सरसराहटें होंगी
मुझ को शिकस्तगी का क़लक़ देर तक रहा
नज़र की फ़त्ह कभी क़ल्ब की शिकस्त लगे
उदास काग़ज़ी मौसम में रंग ओ बू रख दे