दौर-ए-हाज़िर की बज़्म में 'बेकल'
कौन है आदमी नहीं मालूम
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उलझ रहे हैं बहुत लोग मेरी शोहरत से
न जाने कौन सा नश्शा है उन पे छाया हुआ
ज़मीन प्यासी है बूढ़ा गगन भी भूका है
किवाड़ बंद करो तीरा-बख़्तो सो जाओ
वो मेरे क़त्ल का मुल्ज़िम है लोग कहते हैं
फ़रिश्ते देख रहे हैं ज़मीन ओ चर्ख़ का रब्त
अज़्म-ए-मोहकम हो तो होती हैं बलाएँ पसपा
बीच सड़क इक लाश पड़ी थी और ये लिक्खा था
न चिलमनों की हसीं सरसराहटें होंगी
यूँ तो कई किताबें पढ़ीं ज़ेहन में मगर
फ़स्ल-ए-गुल कब लुटी नहीं मालूम