अज़्म-ए-मोहकम हो तो होती हैं बलाएँ पसपा
कितने तूफ़ान पलट देता है साहिल तन्हा
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जब कूचा-ए-क़ातिल में हम लाए गए होंगे
हम भटकते रहे अंधेरे में
नए ज़माने में अब ये कमाल होने लगा
यूँ तो कहने को तिरी राह का पत्थर निकला
रहीन-ए-आस रही है न महव-ए-यास रही
तमन्ना बन गई है माया-ए-इल्ज़ाम क्या होगा
बदन की आँच से सँवला गए हैं पैराहन
फ़र्श ता अर्श कोई नाम-ओ-निशाँ मिल न सका
ज़मीन प्यासी है बूढ़ा गगन भी भूका है
न जाने कौन सा नश्शा है उन पे छाया हुआ
तो पहले मेरा ही हाल-ए-तबाह लिख लीजे
ख़ुद अपने जुर्म का मुजरिम को ए'तिराफ़ न था