ज़मीन प्यासी है बूढ़ा गगन भी भूका है
मैं अपने अहद के क़िस्से तमाम लिखता हूँ
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हर एक लहज़ा मिरी धड़कनों में चुभती थी
लोग तो जा के समुंदर को जला आए हैं
फ़र्श ता अर्श कोई नाम-ओ-निशाँ मिल न सका
मैं जब भी कोई अछूता कलाम लिखता हूँ
हम भटकते रहे अंधेरे में
उधर वो हाथों के पत्थर बदलते रहते हैं
मुझ को शिकस्तगी का क़लक़ देर तक रहा
नज़र की फ़त्ह कभी क़ल्ब की शिकस्त लगे
बदन की आँच से सँवला गए हैं पैराहन
उदास काग़ज़ी मौसम में रंग ओ बू रख दे
दिमाग़ अर्श पे है ख़ुद ज़मीं पे चलते हैं
फ़रिश्ते देख रहे हैं ज़मीन ओ चर्ख़ का रब्त