चाँदी के घरोंदों की जब बात चली होगी
मिट्टी के खिलौनों से बहलाए गए होंगे
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हम भटकते रहे अंधेरे में
फ़र्श ता अर्श कोई नाम-ओ-निशाँ मिल न सका
बीच सड़क इक लाश पड़ी थी और ये लिक्खा था
किवाड़ बंद करो तीरा-बख़्तो सो जाओ
इश्क़-विश्क़ ये चाहत-वाहत मन का भुलावा फिर मन भी अपना क्या
न जाने कौन सा नश्शा है उन पे छाया हुआ
तो पहले मेरा ही हाल-ए-तबाह लिख लीजे
उस का जवाब एक ही लम्हे में ख़त्म था
उलझ रहे हैं बहुत लोग मेरी शोहरत से
नज़र की फ़त्ह कभी क़ल्ब की शिकस्त लगे
वो मेरे क़त्ल का मुल्ज़िम है लोग कहते हैं
हवा-ए-इश्क़ ने भी गुल खिलाए हैं क्या क्या