उस का जवाब एक ही लम्हे में ख़त्म था
फिर भी मिरे सवाल का हक़ देर तक रहा
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दिमाग़ अर्श पे है ख़ुद ज़मीं पे चलते हैं
बीच सड़क इक लाश पड़ी थी और ये लिक्खा था
यूँ तो कहने को तिरी राह का पत्थर निकला
न चिलमनों की हसीं सरसराहटें होंगी
फ़रिश्ते देख रहे हैं ज़मीन ओ चर्ख़ का रब्त
वो मेरे क़त्ल का मुल्ज़िम है लोग कहते हैं
मैं जब भी कोई अछूता कलाम लिखता हूँ
फ़र्श ता अर्श कोई नाम-ओ-निशाँ मिल न सका
वो थे जवाब के साहिल पे मुंतज़िर लेकिन
यूँ तो कई किताबें पढ़ीं ज़ेहन में मगर
अज़्म-ए-मोहकम हो तो होती हैं बलाएँ पसपा
हम भटकते रहे अंधेरे में