बढ़ते चले गए जो वो मंज़िल को पा गए
मैं पत्थरों से पाँव बचाने में रह गया
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ये मेरे साथी हैं प्यारे साथी मगर इन्हें भी नहीं गवारा
तज़्किरा हो तिरा ज़माने में
इस महफ़िल में मैं भी क्या बेबाक हुआ
ख़ुद को हर रोज़ इम्तिहान में रख
इल्म ओ फ़न के राज़-ए-सर-बस्ता को वा करता हुआ
बना के वहम ओ गुमाँ की दुनिया हक़ीक़तों के सराब देखूँ
हर बार ही मैं जान से जाने में रह गया
सुना ये था बहुत आसूदा हैं साहिल के बाशिंदे
कभी इक़रार होना था कभी इंकार होना था
जब इंसान को अपना कुछ इदराक हुआ
साथी मिरे कहाँ से कहाँ तक पहुँच गए