सुना ये था बहुत आसूदा हैं साहिल के बाशिंदे
मगर टूटी हुई कश्ती में दरिया पार होना था
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ये तो सच है कि वो सितमगर है
यहाँ हम ने किसी से दिल लगाया ही नहीं 'मंज़र'
जब इंसान को अपना कुछ इदराक हुआ
ये मेरे साथी हैं प्यारे साथी मगर इन्हें भी नहीं गवारा
हर बार ही मैं जान से जाने में रह गया
बढ़ते चले गए जो वो मंज़िल को पा गए
तज़्किरा हो तिरा ज़माने में
कभी इक़रार होना था कभी इंकार होना था
साथी मिरे कहाँ से कहाँ तक पहुँच गए
इस महफ़िल में मैं भी क्या बेबाक हुआ
ख़ुद को हर रोज़ इम्तिहान में रख
बना के वहम ओ गुमाँ की दुनिया हक़ीक़तों के सराब देखूँ