हर बार ही मैं जान से जाने में रह गया
मैं रस्म-ए-ज़िंदगी जो निभाने में रह गया
Habib Jalib
Allama Iqbal
Gulzar
Faiz Ahmad Faiz
Parveen Shakir
Mohsin Naqvi
Anwar Masood
Rahat Indori
Javed Akhtar
Ahmad Faraz
Wasi Shah
Jaun Eliya
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(449) Peoples Rate This
यहाँ हम ने किसी से दिल लगाया ही नहीं 'मंज़र'
ये तो सच है कि वो सितमगर है
जब इंसान को अपना कुछ इदराक हुआ
कभी इक़रार होना था कभी इंकार होना था
सुना ये था बहुत आसूदा हैं साहिल के बाशिंदे
बढ़ते चले गए जो वो मंज़िल को पा गए
इल्म ओ फ़न के राज़-ए-सर-बस्ता को वा करता हुआ
ये मेरे साथी हैं प्यारे साथी मगर इन्हें भी नहीं गवारा
इस महफ़िल में मैं भी क्या बेबाक हुआ
तज़्किरा हो तिरा ज़माने में