चमन में रखते हैं काँटे भी इक मक़ाम ऐ दोस्त
फ़क़त गुलों से ही गुलशन की आबरू तो नहीं
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जब से 'उम्मीद' गया है कोई!!
हाए इक शख़्स जिसे हम ने भुलाया भी नहीं
ज़ेहन-ओ-दिल में कुछ न कुछ रिश्ता भी था
जाने ये कैसा ज़हर दिलों में उतर गया
किसी से और तो क्या गुफ़्तुगू करें दिल की
मक़्तल-ए-जाँ से कि ज़िंदाँ से कि घर से निकले
गर क़यामत ये नहीं है तो क़यामत क्या है
इक ऐसा मरहला-ए-रह-गुज़र भी आता है
हम तिरा अहद-ए-मोहब्बत ठहरे
तुम हो जो कुछ कहाँ छुपाओगे