मक़्तल-ए-जाँ से कि ज़िंदाँ से कि घर से निकले
हम तो ख़ुशबू की तरह निकले जिधर से निकले
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आसमानों से फ़रिश्ते जो उतारे जाएँ
तिरी तलाश में जाने कहाँ भटक जाऊँ
ऐ दोपहर की धूप बता क्या जवाब दूँ
नाज़ कर नाज़ कि ये नाज़ जुदा है सब से
वो ख़्वाब ही सही पेश-ए-नज़र तो अब भी है
जब से 'उम्मीद' गया है कोई!!
तुम हो जो कुछ कहाँ छुपाओगे
जाने ये कैसा ज़हर दिलों में उतर गया
ये ख़ुद-फ़रेबी-ए-एहसास-ए-आरज़ू तो नहीं
हिजाब उट्ठे हैं लेकिन वो रू-ब-रू तो नहीं