जब से 'उम्मीद' गया है कोई!!
लम्हे सदियों की अलामत ठहरे
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नज़र न आए तो क्या वो मिरे क़यास में है
मक़्तल-ए-जाँ से कि ज़िंदाँ से कि घर से निकले
नाज़ कर नाज़ कि ये नाज़ जुदा है सब से
हाए इक शख़्स जिसे हम ने भुलाया भी नहीं
हम तिरा अहद-ए-मोहब्बत ठहरे
वो ख़्वाब ही सही पेश-ए-नज़र तो अब भी है
गर क़यामत ये नहीं है तो क़यामत क्या है
इक ऐसा मरहला-ए-रह-गुज़र भी आता है
घर तो ऐसा कहाँ का था लेकिन
कब तक इस प्यास के सहरा में झुलसते जाएँ
जाने ये कैसा ज़हर दिलों में उतर गया