गर क़यामत ये नहीं है तो क़यामत क्या है
शहर जलता रहा और लोग न घर से निकले
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नाज़ कर नाज़ कि ये नाज़ जुदा है सब से
सुकूत वो भी मुसलसल सुकूत क्या मअनी
जाने ये कैसा ज़हर दिलों में उतर गया
हिजाब उट्ठे हैं लेकिन वो रू-ब-रू तो नहीं
मक़्तल-ए-जाँ से कि ज़िंदाँ से कि घर से निकले
कब तक इस प्यास के सहरा में झुलसते जाएँ
चमन में रखते हैं काँटे भी इक मक़ाम ऐ दोस्त
किसी से और तो क्या गुफ़्तुगू करें दिल की
जब से 'उम्मीद' गया है कोई!!
तुम हो जो कुछ कहाँ छुपाओगे
आईना-ए-वहशत को जिला जिस से मिली है
नज़र न आए तो क्या वो मिरे क़यास में है