सुकूत वो भी मुसलसल सुकूत क्या मअनी
कहीं यही तिरा अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू तो नहीं
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जाने कब तूफ़ान बने और रस्ता रस्ता बिछ जाए
आसमानों से फ़रिश्ते जो उतारे जाएँ
चमन में रखते हैं काँटे भी इक मक़ाम ऐ दोस्त
घर तो ऐसा कहाँ का था लेकिन
आईना-ए-वहशत को जिला जिस से मिली है
इक ऐसा मरहला-ए-रह-गुज़र भी आता है
तुम हो जो कुछ कहाँ छुपाओगे
हम तिरा अहद-ए-मोहब्बत ठहरे
तिरी तलाश में जाने कहाँ भटक जाऊँ
कब तक इस प्यास के सहरा में झुलसते जाएँ
ज़ेहन-ओ-दिल में कुछ न कुछ रिश्ता भी था