घर तो ऐसा कहाँ का था लेकिन
दर-ब-दर हैं तो याद आता है
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हम हैं बस इतने ही साहिल-आश्ना
मक़्तल-ए-जाँ से कि ज़िंदाँ से कि घर से निकले
नाज़ कर नाज़ कि ये नाज़ जुदा है सब से
वो ख़्वाब ही सही पेश-ए-नज़र तो अब भी है
ये ख़ुद-फ़रेबी-ए-एहसास-ए-आरज़ू तो नहीं
जाने कब तूफ़ान बने और रस्ता रस्ता बिछ जाए
हिजाब उट्ठे हैं लेकिन वो रू-ब-रू तो नहीं
ऐ दिल-ए-ख़ुद-ना-शनास ऐसा भी क्या
नज़र न आए तो क्या वो मिरे क़यास में है
गर क़यामत ये नहीं है तो क़यामत क्या है