वो ख़्वाब ही सही पेश-ए-नज़र तो अब भी है
बिछड़ने वाला शरीक-ए-सफ़र तो अब भी है
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तिरी तलाश में जाने कहाँ भटक जाऊँ
नज़र न आए तो क्या वो मिरे क़यास में है
घर तो ऐसा कहाँ का था लेकिन
नाज़ कर नाज़ कि ये नाज़ जुदा है सब से
मक़्तल-ए-जाँ से कि ज़िंदाँ से कि घर से निकले
जाने ये कैसा ज़हर दिलों में उतर गया
चमन में रखते हैं काँटे भी इक मक़ाम ऐ दोस्त
जब से 'उम्मीद' गया है कोई!!
आईना-ए-वहशत को जिला जिस से मिली है
किसी से और तो क्या गुफ़्तुगू करें दिल की
हिजाब उट्ठे हैं लेकिन वो रू-ब-रू तो नहीं