चला था मैं तो समुंदर की तिश्नगी ले कर
मिला ये कैसा सराबों का सिलसिला मुझ को
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वो ध्यान की राहों में जहाँ हम को मिलेगा
मालूम है 'उर्फ़ी' जो है क़िस्मत में हमारी
वो आए जाता है कब से पर आ नहीं जाता
सबा से आती है कुछ बू-ए-आश्ना मुझ को
दीवाना-वार नाचिये हँसिए गुलों के साथ
रवाँ दवाँ सू-ए-मंज़िल है क़ाफ़िला कि जो था
बस्ता-लब था वो मगर सारे बदन से बोलता था
फिर क्या जो फूट फूट के ख़ल्वत में रोइए